प्रकृति और प्रकृति की शक्तियां

 

  प्रकृति सुन्दर होने में खुश रहती है ।

 

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  प्रकृति अपने सौन्दर्य में आनन्द लेती है ।

 

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  सौन्दर्य प्रकृति का आनन्दपूर्ण निवेदन है ।

 

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  प्रकृति की अन्तरात्मा सुन्दर रूप में खिलती है ।

 

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  प्रकृति में सब कुछ सहज रूप से उदार है ।

 

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   प्रचुरता : प्रकृति हमें एक साथ सब कुछ उदारता के साथ देती है और हमें प्रचुरता का आनन्द प्राप्त होता है ।

 

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   प्रकृति में ज्योति के लिए सहज प्यास होती है ।

 

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   प्रकृति जानती है कि एक दिन वह उपलब्धि प्राप्त करेगी ।

 

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   मनुष्य ने ही प्रकृति को दुःखपूर्ण बना दिया है।

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वैश्व प्रकृति के साथ घनिष्ठता : यह घनिष्ठता उन्हीं के लिए सम्भव है जिनकी चेतना विशाल है और जिनमें आकर्षण और विकर्षण नहीं है ।

 

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   प्रकृति की तथाकथित शक्तियां ऐसी सत्ताओं के बाह्य क्रिया-कलाप के सिवा कुछ नहीं हैं जो मनुष्य की अपेक्षा आकार और शक्ति के हिसाब से बहुत बड़ी हैं ।

 

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   (एक तूफान के बारे में जो पॉण्डिचेरी में १ मई, ११६६ को आया था ।)

 

यह तूफान भू-प्रकृति की ओर से अपने कुछ सोये हुए मानव बालकों को जगाने के लिए एक धक्का था कि श्रीअरविन्द के इस कथन ''भौतिक रूप में तुम कुछ भी नहीं हो, आध्यात्मिक रूप से सब कुछ हो''  के आधार पर प्रगति करने की आवश्यकता है ।

मई १९६६

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     (एक तूफान के बारे में जो पॉण्डिचेरी में नवम्बर १९६६ में आया)

 

   प्रकृति अपने ही ढंग से सहयोग दे रही है । सब कुछ सहज सचाई और निष्कपटता के विकास के लिए है ।

नवम्बर १९६६

 

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   तुम्हें चीजों को उसी तरह बढ़ने देना चाहिये जैसे प्रकृति में पौधे बढ़ते हैं । हम उनके समय से पहले उन पर बहुत कड़ाई या सीमा आरोपित करना चाहें तो वह उनके स्वाभाविक विकास में बाधक ही होगा जिसे देर या सवेर नष्ट करना ही होगा ।

 

   प्रकृतिस्थ भगवान् कोई चीज अन्तिम रूप से नहीं बनाते । हर चीज

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अस्थायी है और साथ-ही-साथ उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यथासम्भव पूर्ण होती है ।

 

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   अपनी कार्यप्रणाली में हमें प्रकृति का दास न होना चाहिये । ये सब परीक्षण करने और बदलने, करने और बिगाड़ने, और फिर बार-बार करने, ऊर्जा, श्रम, सामग्री और धन का अपव्यय करने वाले तरीके, प्रकृति के तरीके हैं, भगवान् के तरीके नहीं । भागवत चेतना पहले कार्य के सत्य को देखती है और देखती है प्रदत्त परिस्थितियों के अनुसार करने का अच्छे-से-अच्छा तरीका । तब वह जो करती है वह अन्तिम होता है, जो हो चुका है उस पर वह कभी वापिस नहीं आती । वह आगे बढ़ती जाती है । सफलता और असफलता दोनों का ही एक नयी प्रगति के लिए, लक्ष्य की ओर एक और कदम के रूप में उपयोग करती है ।

 

   प्रगति करने के लिए प्रकृति नष्ट करती है जब कि भागवत चेतना वृद्धि को उत्तेजित करती और अन्तत: रूपान्तरित करती है ।

 

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   अगर तुम अपनी जिम्मेदारी का अनुभव नहीं करते और अगर तुम हमेशा सावधान और परिश्रमी नहीं रहते तो प्रकृति तुम्हारे साथ शरारत करेगी । अगर तुम प्रकृति की शरारत को बन्द करना चाहो तो तुम्हें अपना काम यथार्थता ओर जिम्मेदारी के भाव के साथ करना चाहिये । तुम्हें कुछ भी अधूरा न छोड़ना चाहिये । तुम्हें हमेशा सावधान और जाग्रत् रहना चाहिये तब तुम सुरक्षित रहोगे ।

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